रणभूमि जो तालियों से वंचित थी,
मनीषा विदुषियों की संचित थी,
सहसा हुआ एक नक्षत्र बढ़ने लगा,
वो अभिशापित कुजंत्र चढ़ने लगा,
शौर्य उदाहरण नयनों में क्षीर था,
व्यूह का अंतिम उत्तर एक वीर था,
अभिमन्यु कुसुम रूप पर विराट से,
विजय होगी कह दो यह सम्राट से,
मैं न सुन पाया व्यूह का अंतिम पथ,
केशव थे दूर और दूर खड़ा था रथ,
अधर्मियों के सारे आकलन भ्रम थे,
माना कुछ तय कर्म ही मेरे क्रम थे,
बल मैं अपना सबको दिखा देता,
एक एक आते तो युद्ध सीखा देता,
अभिमन्यु का विजय का इशारा था,
तमस में वह अग्नि रूप सहारा था,
भीम भी विजय के मानक होने लगे,
देवता खड़े स्थिर अचानक होने लगे,
साहस की श्रेष्ठ विजय लिखने लगी,
भोर काल कोई किरण दिखने लगी,
खड़े समर में आसक्त विचलन नही,
थे बढ़ रहे निरंतर कोई कीलन नही,
अनायास भी कोई विजय नहीं होगी,
बिना प्रयास तो अब जय नहीं होगी,
कुटिलता को दिया उपहार धनुष से,
धरा हीन होगी अब अधर्मी मनुष से,
माधव जान चुके थे नवग्रह दिशा को,
अल्प काल होती उस घोर निशा को,
संयम स्वयं शरीर शिथिल सागर था,
गणना गोचर गोप्य गिरि गागर था,
केशव दिनकर के पथ को संभाल रहे,
अस्त क्या होंगे जो खुद चंद्रभाल रहे,
स्तब्ध महारथी देख रहे प्रतिव्यूह था,
छल के प्रश्नों का उत्तर अभिमन्यु था।